Saturday, September 15, 2018

कविता 32 जरा सोचो पापा

जरा सोचो पापा
तुम कब तक तुम रह पाओगे पापा
इन बहारो मैं कब तक रुक पाओगे
परदोष -परअहित कितने गिनाओगे
परोपकार का मार्ग कब अपनाओगे
                               जरा सोचो पापा.......
बहारे चली जाएगी एक दिन पापा
नज़ारे खो जायेगे एक दिन  पापा
कब तक अपना मूल्य बताओगे गैरो को
तुम कब तक तुम रह पाओगे
                                जरा सोचो पापा.........
नहीं अब तुम्हे श्रेइस्ता का अविष्कार करना होगा
नहीं अब तुम्हे इंसान के रूप मैं आना ही होगा
बहुत जी लिया पत्थरो की तरह तुमने
नहीं अब तुम्हे प्यार का नया मार्ग बनाना ही होगा
                                   ज़रा सोचो पापा.......
दीपेश कुमार जैन

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