[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: खुद की राह खुद बना
जिंदगी की उलझन के हासिये में कितने खो गए
जो है बाक़ी यहाँ खुदगर्ज़ हो गए
खुद के लिए फूल दूजे के शूल हो गए
खुद की राह खुद बना
कोई चाह ऐसी न रही फकत
जो थे मेरे साथ तेरे हो गए
संबधो की डोरी किसी टूटे कब
टूटी है । वो फिर गुनहगार से मेरे हो गए
खुद की रह खुद बना
आया है माझी पतवार के लिए
धाराओ के विपरीत साँसों के
तार हो गए
अब तू ही लगा पार अनंत
रिश्तो के काफिले उजाड़ हो गए
खुद बना ........
दीपेश कुमार
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: समय का लेखा जोखा है कैसा
गम और खुशि का साया
फेरे ज़िन्दगी के कितने
लगाम से परे हर पल
दिन ब दिन बदलते समीकरण
कौन सच कौन झूठ
किसको है पता सच का आईना
अपने अपने सुर में उलझा
कभी इससे कभी उससे
राम की कहानी या महाभारत के पन्नें
सच को देख्ना इसान से है परे
पर अहम् के मदारी का खेल देखो
खुद की समझ पर इतराता
जैसे संसार के रचेता का मिलना पुरस्कार
हा हा हा अहंकार का उल्लू
ज़िन्दगी की नज़र को तोलता ह8 नहीं
बस अपने अलाप का दीवाना
छोड़ दे इसे इंसान जानता है तू भी
एक दिन हो जायेगा समसान्
दीपेश कुमार जैन
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: ये खेल कब तक देखू माँ
शोक दर्द की इन्तहा है ये शमा
रही कसर अब क्या वीरता दिखाने की
शीश भी काट लिए ज़ालिमो के भालो ने
ये खेल कब तक देखू माँ
ज़ख्म एक भरता नहीं
खुद पे काबू है मगर
शहर की ज़िंदगी ये मौज़
सरहद की सोचता है कौन
ये खेल कब तक देखू माँ
बदसलूकी का लिबास ओढ़े कोई
हरकतों का नंगा नाच दिखाता है
क्या करे अमन का पैगाम देने का वक्त है
क्या नया हुआ होगी जान किसी सिपाही की
ये खेल कब तक देखू माँ
वक्त का तराजू भी डामाडोल हो गया
दिल फिर पसीज के खुदगर्ज़ हो गया
शक खुद की वीरता का औऱ गहरा
शोर्य का खेल माँ के आँसू का कतरा हो गया
ये खेल कब तक देखू माँ
दीपेश कुमार जैन
3/5/2017
(सुधी पाठको के लिए)
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: हद है भ्रष्ट्राचार की
जहाँ देखो कतार लगी है इनकी
फीस क्या तुम्हे बेचने की मर्जी
आँखों में चोरो का ईशारा
बैमानि की नियत गद्दारो की
हद................
कोई काम बाकी हो तो
कोई बात नहीं नोटों से होता
नेताओ से जुगत लगाओ
दुहरे पैसो का इंतज़ाम के साथ
हद......
सब को सब मालूम है हाल
बंदियों की ज़िन्दगी के हम गुलाम
छल कपटी की है मौज़
मौन के हिलोरे के आगे आपको सलाम
हद.......
लुट गए बर्तन भाड़े सुकून गरीब का
फिर भी नही भरा आँतो का घड़ा
चोर रईस का
हर दिस में सब मुँह का ताकना
ये है नज़ारा सजजनो की कराह का
हद....
सब बहसबाजी का चलचित्र पर है खेल
भस्ट्रो को साथ उच्चको का
कड़ी है लंबी तेरी सोच के पार
सकता नहीं यहाँ कोई उध्दार
हद....
दीपेश कुमार जैन एक सच
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: यह वो नहीं जो सोचा था
तमाशा किसका बनाया
कोई नहीं पाया समझ
किसकी है बिसात
कौन है खिलाडी
कौनअनाड़ी
नहीं है मूर्त का अमूर्त पर विसर्जन
फिर भी यह वो नहीं.......
कितने युगों का सफ़र
कोन टिक पाया यहाँ
किसने बनाया किसने मिटाया
नहीं यह वह नहीं......
नज़र के कोने में कितने हैं
पैमाने
विखरी या सुलझी घटाये
धन ऋण का सब माजरा
कुछ तेरा कुछ उसका है आसरा
झूठ की तक़दीर चमकदार
भरी है गठरी प्रश्नो की हर बार
नहीं यह वह तो .....
छलकना लिखा ज़िन्दगी के पैमानों में कब तक
सोच का उल्लू ज़िंदा जब तक या
अनंत का है झमेला
चल छोड़ यार इन हासिये की बात
बस फैला गीत हवाओ में ख़ुशि के
जान है हलक में जब तक
नहीं यह वह नहीं....,,,
दीपेश कुमार जैन (सुधी पाठको के लिए)
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: एक पहेली है ज़िन्दगी
सोचने के लिए
क्या नहीं यहाँ
उलझनों की फैली है हॉट
तू कर सके तो बन मत मूक
दिखा अपने जलवो की राख़
एक पहेली है ज़िन्दगी
मेरे हाथो में अनगिनत
ख़्वाब अधूरे है तेरी ही तरह
सिर्फ सांसो के मूल्यों की
कर रहा हु कर्द्र तेरी ही तरह
एक.....
समय के चक्रविहु की है कहानी
वरना है क्या यहाँ सिर्फ और सिर्फ हैरानी
कुछ समझ गए जो न समझे
धूमिल कर गए
लाशो का काफिला यु ही गुजरता गया
हैरान दीपेश निग़ाहों को मिलाता गया तुम्हरी तरह
एक पहेली.....
संछिप्त सा दुनिया का परिचय
काफिलों का हुजूम इसे बढ़ाता चला गया
क्या मेरा क्या तेरा दर ब् दर
चूर हो गया चेहरा तेरा..मेरा
फिक्र है मुझे नादाँ तेरी
समझाया तुझे पर राह भटकने का तेरा सिलसिला .....पहेलियो की बस बढ़ता ही गया
दीपेश कुमार जैन (समर्पित मेरे पाठको को संकेततिक अर्थ समझे)
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: जज्बातों का समंदर हैं ये जहाँ
खो गए प्यार के लिए
मिट गए देश के लिए
पटल गए जमी के लिए
उठ गए अपनों के लिए
क्या है
जी हा जज्बातों का समंदर
तेरे में अपनापन था
इसलिए कोई भरोसा था
किनारो का पानी बिन छुये
प्यास बूझाने का करतब
कहा से उठा
जी हा जज्बातों का समंदर....
तकलीफो का मंज़र
हज़ारो की भीड़ का वो नज़ारा
तड़फती जिंदिगी का अश्रु
छीनकर तुझे देने वाला दिलासा की
राख .कोन है वो
जी हा जज्बातों का समंदर.......
खुशि या गम में आंसू क्यों
दर्द के कुछ पुर्जे बिछड़े क्यों
निगाहो के दरमिया शर्म का लिहाज़ क्यों
मोतियो के शीप सागर की हमदर्द क्यों
जी हा जज्बातों का समंदर है ये जहाँ(समर्पित सुधी पाठको को ऑन डिमांड)दीपेश कुमार जैन
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: वाह रे जमाना
खाना और कमाना
फिक्र करो खुद की या उनकी
ज़िद करो पूरी किसकी
ये है फैसला तुम्हारा
वह रे जमाना
दिन रात की उलझने
बात की बाते ये सौगाते
कर्म रहम ईमान की दावत
बेईमानो की है मुस्कराहट
वाह रे
डोलोमाल की बातें
बच्चों की लातो
सुनने का है मज़ा
जो चुन चुनाव तुम्हारा
किस्सा किसी का हो
नाता है तुम्हारा
वह रे जमाना
मेरी तुम्हरी किसी को हो
विसात के खंड नहीं है मोहताज़
जो जिसका हो गया उसी का
का है राज़
सुन् वकवास कब जागा जमाना
चलो सुन तो ली
अब ले लो साँस
वह रे जमाना। दीपेश कुमार जैन
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: आना जाना खेल है समय का
इस इबारत के पन्ने धुंधले हुए
चलो नए लेखन का सृजन
जो खास थे पराये हुए
चलो नए दोस्तों की तफ्तीश् करे
आना जाना .........
कहीँ गर्जन है बिजली की
कही तांडव से भू हलचल का
सर्वनास मानव का है अंजाम
खिलवाड़ मूर्त से अमूर्त का बना
आना जाना............
रत्ती भर ईज़ाद करने वालो
अनंत को चुनोती का मंजर
दिल के सहमे सहमे किनारो में
बह रहा अहसास का दरिया
एक ही है बात जो कहता
न कर प्रकृति का अपमान
आना जाना.............
दीपेश कुमार जैन
[17/09, 11:51 pm] दीपेश कुमार जैन: अब रहने भी दो पापा
कम के दाम मिलते है यहाँ
अब ईमान क्या करे
शाम की तन्हाई में
थोडा जी लेने दो
एक दो कस मर के पी लेने दो
अब रहने भी पाप
नालायको की दुनिया में
आपका ये फिर नया पाठ
वफ़ा का नाम ही बेमानी हो गया
अब रहने भी दो पापा
जानता हु न आप हारेंगे न
वो सिद्धान्त जिनकी बिसात
पर जिया आपने जीवन को
अब रहने भी दो पाप
संस्कृति के मूल्यों का हिसाब
बिगड़ गया है अब
संस्कार कमजोरी हो गया है अब
किस विस्वास की बात होती है यहाँ
आबरू लूट ली अब यहाँ
बेटी की बाप ने
अब रहने भी पापा
बैमानो की दुनिया में ईमान के इनाम
खो गए है सब्दकोश से ऐसे नाम
अब रहने भी दो पापा
दीपेश कुमार जैन
स्वरचित कविताओं/विचारो/लेखों/ज्ञानवर्धक संग्रह/कहानियां **न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।* *कामये दुःखतप्तानां प्रणिनां आर्तिनाशनम् ॥*
Monday, September 17, 2018
विवध
Sunday, September 16, 2018
Saturday, September 15, 2018
कविता 34 ज़िन्दगी एक एहसास है
वो मगर क्या सोचता है समझ नहीं आता
परिंदों और हवाओ को कैद करने की झूठी है परिभाषा
जिंदगी एक एहसास है.................
जिन पनघटो को देखता हू प्यासी नज़रो से पापा ये भी अहसास होता है मजारो से
कमबख्त कब्रों की गिनती कम नहीं होती फिज़ाओ और बहारो की कोशीशो के सहारो
से
जिंदगी एक अहसास है............
सख्त ह्रदयो के इन लोगो से रोज कहता हू पापा दिलो की दूरिया दिल से न बनाओ
ये मगर सोचते क्या है समझ नहीं आता पापा कोई समझाए इन्हें सपनो के महल हवाओ में नहीं बना करते
जिंदगी अहसास है.......
समुन्दर की लहरों से किनारों को जीने का एहसास होता है पापा
आखिर नदियों के सहारे ही बुझती है ये प्यास कोई ये क्या सोचता समझ नहीं आता 'दीपेश' समझाए इन्हें रात के अँधेरे मैं जुगनुओ के सहारे नहीं चला जाता पापा
जिंदगी एक एहसास....
दीपेश कुमार जैन
कविता 32 जरा सोचो पापा
जरा सोचो पापा
तुम कब तक तुम रह पाओगे पापा
इन बहारो मैं कब तक रुक पाओगे
परदोष -परअहित कितने गिनाओगे
परोपकार का मार्ग कब अपनाओगे
जरा सोचो पापा.......
बहारे चली जाएगी एक दिन पापा
नज़ारे खो जायेगे एक दिन पापा
कब तक अपना मूल्य बताओगे गैरो को
तुम कब तक तुम रह पाओगे
जरा सोचो पापा.........
नहीं अब तुम्हे श्रेइस्ता का अविष्कार करना होगा
नहीं अब तुम्हे इंसान के रूप मैं आना ही होगा
बहुत जी लिया पत्थरो की तरह तुमने
नहीं अब तुम्हे प्यार का नया मार्ग बनाना ही होगा
ज़रा सोचो पापा.......
दीपेश कुमार जैन
कविता 31 तुफानो को आने दो पापा
मेरे अंदर के तुफानो को,
बाहर आ जाने दे जिंदगी।
उन हवा के झोको से
शायद ! छट जाये गंदगी।।
तुफानो को.......
मनावता के मूल्य कोंडी भर लगने लगे ।
सुधार की बातो में वर्गमूल जुड़ने लगे ।।
पर नज़र नहीं आता वो बहाव,
जो धो सके अनीति के रखवालो को।।
तुफानो को.........
जहा देखो संकट नज़र आता है,
क्यों नहीं कोई फरिस्ता आता ह ।।
पूछता हू इन पतथरो को पूजने वालो से,
मानव से मानव का रिश्ता क्यों नहीं बन पाता है
तुफानो को......
आत्मा की अंतिम कोर में ये प्रशन चुभने लग "दीपेश"
ईमान ,ज्ञान ,नीती के दोहे ,बेमतलब लगने लगे ।।
राम की कहानी सुनो या अल्लाह के पैगाम
बस । अब चाहिए इंसानियत के नए नाम
तुफानो को.....
कविता 31 अब दर्द की गुंजाइश नही पापा
पापा
जला कर राख दूगा जहा को
अब प्यार मैं भी कड़वाहट आ गई
पापा
मिटा के नाश कर दुगा जहा को
सज्जनता कमजोरी हो गई जग में
पापा
सम्मान बैमानी आदर्श बकबास
डरने वालो को डराते देखा
रोने वालो को रुलाते देखा
ना खोल ये खुदा इन जजीरो को
अब व्यंग की सरहदों में दर्द अंगड़ाई ले रहा है
पापा
हर कोई एक दुसरो को चुभो रहा
वाह इन्साफ खो गया कहा हा हा हा
तुझे ढूढने की हो रही खता
कर्म भूमि युध्य भूमि न बन
सोचू कब तक
सोचता हु अस्त्रो सस्त्रो का
आराम न छिनु
पापा
पर समय कर रहा मजबूर
माँ माफ़ करना मुझे
संस्कारो के मूल्य कोडी भर हो गए
तेरे नुकसे पुराने हो गए
चाहता था इन्ही के साथ चलना
बुला ले मुझे माँ रोकना है तो ये सैलाब
बता दे फिर से चरित्र की कथा
सुना दे अपनी पत्शाला
पापा
दीपेश कुमार जैन
मेरी कविता 30 ये कैसी दीवाली है पापा
रोशनी की भरमार है
आवाजो की बहार है
स्वच्छता बाते ही बेकार है।
ये कैसी दिवाली है ........
जुओ ताश पत्तो की आहट
चोरो का हुजूम मोको की तलास में
सहमा सहमा आदमी दिखाबा नए लिवास का
ये कैसी दिवाली है ........
रंग रेलिया जिस्म के बाज़ार की
नसीहते संस्कृति के उत्तान की
लोक लुभावने दाम झुटे
बाज़ार मे सजा है दुकान मिलावटी सामान की
ये कैसी दिवाली है ........
वादों के बादशाह ने कहा अच्छे दिन आयगे
न कर नया छल ओ मालिक
तलास नहीं अच्छे दिन की
दे सके तों ए मालिक दुनिया को है जरुरत सच्चे दिन दे
सच्चे दिन कब आयगे पापा
आम आदमी का दिवाला है पापा
ये कैसी दिवाली है ........
कविता वाह रे इंसान
वाह रे इंसान
हवाओ को गुमान क्यों नहीं होता
जिसके दम से सांसो का संसार जीता
नीर का गुमान कहा है ;
:कहा है मिटटी का गुमान
जिसकी जड़ में जीवन पलता
बस है उस इंसान मैं जो जानता है
मिटटी का पुतला है खुद
..........................................
वाह रे इंसान ..............................
कविता 29 अपनो से है सपने
गैरो से क्या
किन्तु कौन है अपना कौन पराया
उलझा है तू जीवन भर यहाँ
मूल्यों की कौड़िया है रिश्ते
कब बने जाने कबे टूट गए
अपनों से है सपने
किसको लाया था साथ अपने
किसको अपना सा पाया था
जाल है रिश्तो का
न जाने किसने बिछाया था
रूठ गए मोती न जाने माला के
सब बिखरा बिखरा है पाया
अपनों से है सपने
पहेलियो के जाल जीवन में
हर दिन बढते है जाते
दोस्तों की तलाश कम
इंसानियत की है तलाश
पर कहा जहा देखता हु आज
सिर्फ नजर आती है इसकी लाश
आपनो से है सपने
आधुनिकता मे अब कहा रहे अपने
लेनदेन के है सिर्फ अपने
किन अपनों की तलाश में है दीप
किन सपनो की है आरजू
अपनों से है सपने
दीपेश कुमार जैन
कविता 29 अब रहने भी दो पापा
अब रहने भी दो पापा
कम के दाम मिलते है यहाँ
अब ईमान क्या करे
शाम की तन्हाई में
थोडा जी लेने दो
एक दो कस मर के पी लेने दो
अब रहने भी पाप
नालायको की दुनिया में
आपका ये फिर नया पाठ
वफ़ा का नाम ही बेमानी हो गया
अब रहने भी दो पापा
जानता हु न आप हारेंगे न
वो सिद्धान्त जिनकी बिसात
पर जिया आपने जीवन को
अब रहने भी दो पाप
संस्कृति के मूल्यों का हिसाब
बिगड़ गया है अब
संस्कार कमजोरी हो गया है अब
किस विस्वास की बात होती है यहाँ
आबरू लूट ली अब यहाँ
बेटी की बाप ने
अब रहने भी पापा
बैमानो की दुनिया में ईमान के इनाम
खो गए है सब्दकोश से ऐसे नाम
अब रहने भी दो पापा
दीपेश कुमार जैन
मेरी कविता 28
सर है आप असरदार
दिल के सच्चे
कहते है बच्चे बच्चे
सरस्वती का है वास
सबको है विस्वास
सर है आप असरदार
आत्मविस्वास की तस्वीर
न जाने बना दी कितनो तक़दीर
मधु र इतने जैसे संगीत
सुगम ऐसे जैसे सबके मीत
सर असरदार है आप
प्रगति की मूरत
भोली सी सूरत
सयंम के पक्के
सकारात्मक के लिबास है
सर आप है असरदार
कर्म के खुदार् दिल के उदार
दिल के मयखाने के दिलदार है
अब क्या कहू सच तो ये की
आप सरदारो के सरदार है
सर आप असरदार है
(बड़ेभाई श्री संजय मिश्र जी के लिए ये
सबद है समर्पित)
दीपेश कुमार जैन
कविता 27 खुद की राह खुद बना
खुद की राह खुद बना
जिंदगी की उलझन के हासिये में कितने खो गए
जो है बाक़ी यहाँ खुदगर्ज़ हो गए
खुद के लिए फूल दूजे के शूल हो गए
खुद की राह खुद बना
कोई चाह ऐसी न रही फकत
जो थे मेरे साथ तेरे हो गए
संबधो की डोरी किसी टूटे कब
टूटी है । वो फिर गुनहगार से मेरे हो गए
खुद की रह खुद बना
आया है माझी पतवार के लिए
धाराओ के विपरीत साँसों के
तार हो गए
अब तू ही लगा पार अनंत
रिश्तो के काफिले उजाड़ हो गए
खुद बना ........
दीपेश कुमार
कविता 26 आना जाना खेल समय का
आना जाना खेल है समय का
इस इबारत के पन्ने धुंधले हुए
चलो नए लेखन का सृजन
जो खास थे पराये हुए
चलो नए दोस्तों की तफ्तीश् करे
आना जाना .........
कहीँ गर्जन है बिजली की
कही तांडव से भू हलचल का
सर्वनास मानव का है अंजाम
खिलवाड़ मूर्त से अमूर्त का बना
आना जाना............
रत्ती भर ईज़ाद करने वालो
अनंत को चुनोती का मंजर
दिल के सहमे सहमे किनारो में
बह रहा अहसास का दरिया
एक ही है बात जो कहता
न कर प्रकृति का अपमान
आना जाना.............
दीपेश कुमार जैन
कविता 25 वाह रे जनता
वाह रे जमाना
खाना और कमाना
फिक्र करो खुद की या उनकी
ज़िद करो पूरी किसकी
ये है फैसला तुम्हारा
वह रे जमाना
दिन रात की उलझने
बात की बाते ये सौगाते
कर्म रहम ईमान की दावत
बेईमानो की है मुस्कराहट
वाह रे
डोलोमाल की बातें
बच्चों की लातो
सुनने का है मज़ा
जो चुन चुनाव तुम्हारा
किस्सा किसी का हो
नाता है तुम्हारा
वह रे जमाना
मेरी तुम्हरी किसी को हो
विसात के खंड नहीं है मोहताज़
जो जिसका हो गया उसी का
का है राज़
सुन् वकवास कब जागा जमाना
चलो सुन तो ली
अब ले लो साँस
वह रे जमाना। दीपेश कुमार जैन
कविता 24
एक पहेली है ज़िन्दगी
सोचने के लिए
क्या नहीं यहाँ
उलझनों की फैली है हॉट
तू कर सके तो बन मत मूक
दिखा अपने जलवो की राख़
एक पहेली है ज़िन्दगी
मेरे हाथो में अनगिनत
ख़्वाब अधूरे है तेरी ही तरह
सिर्फ सांसो के मूल्यों की
कर रहा हु कर्द्र तेरी ही तरह
एक.....
समय के चक्रविहु की है कहानी
वरना है क्या यहाँ सिर्फ और सिर्फ हैरानी
कुछ समझ गए जो न समझे
धूमिल कर गए
लाशो का काफिला यु ही गुजरता गया
हैरान दीपेश निग़ाहों को मिलाता गया तुम्हरी तरह
एक पहेली.....
संछिप्त सा दुनिया का परिचय
काफिलों का हुजूम इसे बढ़ाता चला गया
क्या मेरा क्या तेरा दर ब् दर
चूर हो गया चेहरा तेरा..मेरा
फिक्र है मुझे नादाँ तेरी
समझाया तुझे पर राह भटकने का तेरा सिलसिला .....पहेलियो की बस बढ़ता ही गया
दीपेश कुमार जैन (समर्पित मेरे पाठको को संकेततिक अर्थ समझे)
कविता 22
जज्बातों का समंदर हैं ये जहाँ
खो गए प्यार के लिए
मिट गए देश के लिए
पटल गए जमी के लिए
उठ गए अपनों के लिए
क्या है
जी हा जज्बातों का समंदर
तेरे में अपनापन था
इसलिए कोई भरोसा था
किनारो का पानी बिन छुये
प्यास बूझाने का करतब
कहा से उठा
जी हा जज्बातों का समंदर....
तकलीफो का मंज़र
हज़ारो की भीड़ का वो नज़ारा
तड़फती जिंदिगी का अश्रु
छीनकर तुझे देने वाला दिलासा की
राख .कोन है वो
जी हा जज्बातों का समंदर.......
खुशि या गम में आंसू क्यों
दर्द के कुछ पुर्जे बिछड़े क्यों
निगाहो के दरमिया शर्म का लिहाज़ क्यों
मोतियो के शीप सागर की हमदर्द क्यों
जी हा जज्बातों का समंदर है ये जहाँ(समर्पित सुधी पाठको को ऑन डिमांड)दीपेश कुमार जैन
कविता 20
यह वो नहीं जो सोचा था
तमाशा किसका बनाया
कोई नहीं पाया समझ
किसकी है बिसात
कौन है खिलाडी
कौनअनाड़ी
नहीं है मूर्त का अमूर्त पर विसर्जन
फिर भी यह वो नहीं.......
कितने युगों का सफ़र
कोन टिक पाया यहाँ
किसने बनाया किसने मिटाया
नहीं यह वह नहीं......
नज़र के कोने में कितने हैं
पैमाने
विखरी या सुलझी घटाये
धन ऋण का सब माजरा
कुछ तेरा कुछ उसका है आसरा
झूठ की तक़दीर चमकदार
भरी है गठरी प्रश्नो की हर बार
नहीं यह वह तो .....
छलकना लिखा ज़िन्दगी के पैमानों में कब तक
सोच का उल्लू ज़िंदा जब तक या
अनंत का है झमेला
चल छोड़ यार इन हासिये की बात
बस फैला गीत हवाओ में ख़ुशि के
जान है हलक में जब तक
नहीं यह वह नहीं....,,,
दीपेश कुमार जैन (सुधी पाठको के लिए)
कविता 18 समय का लेखा जोखा
गम और खुशि का साया
फेरे ज़िन्दगी के कितने
लगाम से परे हर पल
दिन ब दिन बदलते समीकरण
कौन सच कौन झूठ
किसको है पता सच का आईना
अपने अपने सुर में उलझा
कभी इससे कभी उससे
राम की कहानी या महाभारत के पन्नें
सच को देख्ना इसान से है परे
पर अहम् के मदारी का खेल देखो
खुद की समझ पर इतराता
जैसे संसार के रचेता का मिलना पुरस्कार
हा हा हा अहंकार का उल्लू
ज़िन्दगी की नज़र को तोलता ह8 नहीं
बस अपने अलाप का दीवाना
छोड़ दे इसे इंसान जानता है तू भी
एक दिन हो जायेगा समसान्
दीपेश कुमार जैन
बातें
दीपो का साया ,खुशहाली की आवाज़
गर्जन ध्वनि नगाड़ो का साज
दुनिया के सवा करोड़ धड़कनो का सलाम
मुबारक हो संसार को भारत का ये पैगाम
कविता 18
एक पहेली है ज़िन्दगी
सोचने के लिए
क्या नहीं यहाँ
उलझनों की फैली है हॉट
तू कर सके तो बन मत मूक
दिखा अपने जलवो की राख़
एक पहेली है ज़िन्दगी
मेरे हाथो में अनगिनत
ख़्वाब अधूरे है तेरी ही तरह
सिर्फ सांसो के मूल्यों की
कर रहा हु कर्द्र तेरी ही तरह
एक.....
समय के चक्रविहु की है कहानी
वरना है क्या यहाँ सिर्फ और सिर्फ हैरानी
कुछ समझ गए जो न समझे
धूमिल कर गए
लाशो का काफिला यु ही गुजरता गया
हैरान दीपेश निग़ाहों को मिलाता गया तुम्हरी तरह
एक पहेली.....
संछिप्त सा दुनिया का परिचय
काफिलों का हुजूम इसे बढ़ाता चला गया
क्या मेरा क्या तेरा दर ब् दर
चूर हो गया चेहरा तेरा..मेरा
फिक्र है मुझे नादाँ तेरी
समझाया तुझे पर राह भटकने का तेरा सिलसिला .....पहेलियो की बस बढ़ता ही गया
दीपेश कुमार जैन (समर्पित मेरे पाठको को संकेततिक अर्थ समझे)
कविता 17
खुद की राह खुद बना
जिंदगी की उलझन के हासिये में कितने खो गए
जो है बाक़ी यहाँ खुदगर्ज़ हो गए
खुद के लिए फूल दूजे के शूल हो गए
खुद की राह खुद बना
कोई चाह ऐसी न रही फकत
जो थे मेरे साथ तेरे हो गए
संबधो की डोरी किसी टूटे कब
टूटी है । वो फिर गुनहगार से मेरे हो गए
खुद की रह खुद बना
आया है माझी पतवार के लिए
धाराओ के विपरीत साँसों के
तार हो गए
अब तू ही लगा पार अनंत
रिश्तो के काफिले उजाड़ हो गए
खुद बना ........
दीपेश कुमार
कविता 16
खुद की राह खुद बना
जिंदगी की उलझन के हासिये में कितने खो गए
जो है बाक़ी यहाँ खुदगर्ज़ हो गए
खुद के लिए फूल दूजे के शूल हो गए
खुद की राह खुद बना
कोई चाह ऐसी न रही फकत
जो थे मेरे साथ तेरे हो गए
संबधो की डोरी किसी टूटे कब
टूटी है । वो फिर गुनहगार से मेरे हो गए
खुद की रह खुद बना
आया है माझी पतवार के लिए
धाराओ के विपरीत साँसों के
तार हो गए
अब तू ही लगा पार अनंत
रिश्तो के काफिले उजाड़ हो गए
खुद बना ........
दीपेश कुमार
कविता15 वो खो गया द्रुम की छाँव मे///रीतिकालीन शैली////
द्रुम की छाह में
डार के पलने की बिसात
स्वेत चांदनी की लालिमा
मन के गीत
खो गए कहाँ
आपाधापी हॉट की
लोगो के हुजूम का मंजर
सिसकती आँखों की कराह
पाहन हर्दय जंग लोह
ढुढंता फिर ध्यान -शांति
खो गए कहाँ
लाशो का कारवां
रुकता नहीं किसी के रोके
आया तो क्या करेगा
जगत् _विजय ध्वजा लेकर
मेरी तेरी कंथा सब एक
तुमने और मैंने
देखा था जो स्वप्न दिवा
खो गए कहाँ
दीपेश कुमार जैन
(सुधी सहित्यिक पाठको को समर्पित )
द्रुम=पेड़ ,
कंथा=दर्द भरी दास्ताँ,
डार=पेड़ की डाली
4मई2016
कविता14
दो गज जमीन का संग
.
फटिक तरंगे जीवन प्रकाश
अमंद गति जीवन की
अविरल धारा ज्ञान की
दो गज जमीन का संग
दो गज....
अथाह है पाया नियति से
मन के गीत की झंकार
असमय का निस्पंदन
धातुओ की आवाज़
दो गज़.....
रिश्ता है डोरी का
पवन के झूलो से
राह के कांन्टे
जिजीविषा नित नित बढ़ती अपितु
दो गज.......
दीपेश कुमार जैन(सुधी पाठको को समर्पित)
फटिक=स्फटिक पत्थर
अमंद=तीव्र
जिजीविषा =जीने की तामन्ना
कविता13 भारत भाषा विचार
एक बात .....
कुछ प्रान्तों में भाषा पर बहस होती है ये होनी चाहये
..वो होनी चाहये........ओके लेकिन हिंदी भाषा के लिए कोशिश करे.....
आच्छा है देश की पहचान है परन्तु इस पर इतना कठोर होने की जरुरत
नहीं है..
अन्ततः भाषा का मुख्य कम बात होना चाहये ,समझ आना चाहये.
क्या फर्क पढता आप कोन सी भाषा बोलकर सही संचार करते हो
.सिर्फ जरुरी ये है की आप आपनी बात जो कहना चाहते है exactly
वहाँ तक पहुचे, समझ आये ,जहा तक आप जाना चाहते हो ।
देखो लोग अपनी भाषा में प्यार से नहीं रहते,लड़ते झगते है क्यों?
वह तो आपकी अपनी मीठी भाषा है कम से कम उसमे तो नहीं झग़ड़ना चाहये but ऐसा नहीं है.........
अब ये झंझट छोड़ो कोई भी बोलो खुस रहो........
deeपेश जैंन
कविता
ये खेल कब तक देखू माँ
शोक दर्द की इन्तहा है ये शमा
रही कसर अब क्या वीरता दिखाने की
शीश भी काट लिए ज़ालिमो के भालो ने
ये खेल कब तक देखू माँ
ज़ख्म एक भरता नहीं
खुद पे काबू है मगर
शहर की ज़िंदगी ये मौज़
सरहद की सोचता है कौन
ये खेल कब तक देखू माँ
बदसलूकी का लिबास ओढ़े कोई
हरकतों का नंगा नाच दिखाता है
क्या करे अमन का पैगाम देने का वक्त है
क्या नया हुआ होगी जान किसी सिपाही की
ये खेल कब तक देखू माँ
वक्त का तराजू भी डामाडोल हो गया
दिल फिर पसीज के खुदगर्ज़ हो गया
शक खुद की वीरता का औऱ गहरा
शोर्य का खेल माँ के आँसू का कतरा हो गया
ये खेल कब तक देखू माँ
दीपेश कुमार जैन
(सुधी पाठको के लिए)
कविता11 रोमांस
फिर दिल मचला तेरा ख्याल आ गया
सपनो की महक का ये नज़ारा
तेरी बाहों मे सबेरा फिर याद आ गया
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हर अंदाज़ तेरी निगाहों के तरऱनुम जैसा
मुफलिसी सा मिलन उजालों जैसा
परवरदिगार के इशारो का अंदाज़े विया
झरोखे की किरणों का मिलन संगीत जैसा
{ Its for my lovely wife anjali next birthday}दीपेश कुमार जैन
चित्र
कविता 34 ज़िन्दगी एक एहसास है
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