Saturday, September 15, 2018

कविता

ये खेल कब तक देखू माँ
शोक दर्द की इन्तहा है ये शमा
रही कसर अब क्या वीरता दिखाने की
शीश भी काट लिए ज़ालिमो के भालो ने
                   ये खेल कब तक देखू माँ
ज़ख्म एक भरता नहीं
खुद  पे काबू है मगर
शहर की ज़िंदगी ये मौज़
सरहद की सोचता है कौन
                        ये खेल कब तक देखू माँ
बदसलूकी का लिबास ओढ़े कोई
हरकतों का नंगा नाच दिखाता है
क्या करे अमन का पैगाम देने का वक्त है
क्या नया हुआ होगी जान किसी सिपाही की
                      ये खेल कब तक देखू माँ
वक्त का तराजू भी डामाडोल हो गया
दिल फिर पसीज के खुदगर्ज़ हो गया
शक खुद की वीरता का औऱ गहरा
शोर्य का खेल माँ के आँसू का कतरा हो गया
                          ये खेल कब तक देखू माँ
                                       दीपेश कुमार जैन
                                         
                                   (सुधी पाठको के लिए)

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