Saturday, September 15, 2018

कविता 29 अपनो से है सपने

अपनों से है सपने
गैरो से क्या
किन्तु कौन है अपना कौन पराया
उलझा है तू जीवन भर यहाँ
मूल्यों की कौड़िया है रिश्ते
कब बने जाने कबे टूट गए
अपनों से है सपने
किसको लाया था साथ अपने
किसको अपना सा पाया था
जाल है रिश्तो का
न जाने किसने बिछाया था
रूठ गए मोती न जाने माला के
सब बिखरा बिखरा है पाया
अपनों से है सपने
पहेलियो के जाल जीवन में
हर दिन बढते है जाते
दोस्तों की तलाश कम
इंसानियत की है तलाश
पर कहा जहा देखता हु आज
सिर्फ नजर आती है  इसकी लाश
आपनो से है सपने
आधुनिकता मे अब कहा रहे अपने
लेनदेन के है सिर्फ अपने
किन अपनों की तलाश में है दीप
किन सपनो की है आरजू
अपनों से है सपने
दीपेश कुमार जैन

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