Saturday, September 15, 2018

कविता15 वो खो गया द्रुम की छाँव मे///रीतिकालीन शैली////

वो खो गया कहाँ
द्रुम की छाह में
डार के पलने की बिसात
स्वेत चांदनी की लालिमा
मन के गीत
            खो गए कहाँ
आपाधापी हॉट की
लोगो के हुजूम का मंजर
सिसकती आँखों की कराह
पाहन हर्दय जंग लोह
ढुढंता फिर ध्यान -शांति
                खो गए कहाँ
लाशो का कारवां
रुकता नहीं किसी के रोके
आया तो क्या करेगा
जगत् _विजय ध्वजा लेकर
मेरी तेरी कंथा सब एक
तुमने और मैंने
देखा था जो स्वप्न दिवा
                 खो गए कहाँ
     दीपेश कुमार जैन
(सुधी सहित्यिक पाठको को समर्पित )
द्रुम=पेड़ ,
कंथा=दर्द भरी दास्ताँ,
डार=पेड़ की डाली
4मई2016

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