Friday, September 14, 2018

कविता 7 कुछ ऐसे भी गुजरी है

कुछ ऐसे भी गुज़री....
भावनाओ का ज्वार भाटा
चलता है सबके जीवन में
एहसास दे जाता है हमे
होले होले दबे पांव मिठे मिठे
         कुछ ऐसे भी गुज़री....
कुछ सुनी अनसुनी बातो का झोंका
आया था उस पहर जब मौका
जिरह उनकी आफताब था
दीदार कुछ खट्टा मीठा
रह रही थी ज़िन्दगी
तरुवर के साए मे
           कुछ ऐसे भी गुज़री....
मन था की चलता यू कि जग जीता
उदासियों का नामो निशान ही नहीं था
गुलज़ार के ख्याल का था पूरा
मिज़ाज़ सीधा सीधा
           कुछ ऐसे भी गुज़री....
सलामत थी सांसो की लहर हर पल
जो था वो ही लगता था चाँद
महल
हसरते दिन रात ले रही अँगड़ाई
बन कर हुजूम तालियां हर पल तुमने भी बरसाई
           कुछ ऐसे भी गुज़री....
समय के राग का संगीत भी बजा कुछ ऐसे
रागिनियों के पर भी सींच गए मुस्कराहट ऐसे
यू लगा कभी सावन भादो सी है  ज़िन्दगी
दवाओं के पर्चे खाली ही रहेंगे
ता उम्र.....
           कुछ ऐसे भी गुज़री....
            दीपेश कुमार जैन

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