Tuesday, October 2, 2018

मेरी कविता 37 यह वो नही जो सोच था

यह वो नहीं जो सोचा था
तमाशा किसका बनाया 
कोई नहीं पाया समझ
किसकी है बिसात 
कौन है खिलाडी 
कौनअनाड़ी
नहीं है मूर्त का अमूर्त पर विसर्जन
फिर भी यह वो नहीं.......
कितने युगों का सफ़र
कोन टिक पाया यहाँ
किसने बनाया किसने मिटाया 
नहीं यह वह नहीं......
नज़र के कोने में कितने हैं
पैमाने
विखरी या सुलझी घटाये
धन ऋण का सब माजरा
कुछ तेरा कुछ उसका है आसरा
झूठ की तक़दीर चमकदार
भरी है गठरी प्रश्नो की हर बार
नहीं यह वह तो .....
छलकना लिखा ज़िन्दगी के पैमानों में कब तक
सोच का उल्लू ज़िंदा जब तक या
अनंत का है झमेला
चल छोड़ यार इन हासिये की बात
बस फैला गीत हवाओ में ख़ुशि के 
जान है हलक  में जब तक
नहीं यह वह नहीं....,,,
दीपेश कुमार जैन (सुधी पाठको

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